प्रकृति के सौन्दर्य-असौन्दर्य की रहस्यता को सहजता व सुगमता से कैनवास पर उकेरने वाले चितेरे जहांगीर सबावाला का जन्म मुंबई के एक समृद्ध पारसी परिवार में 23 अगस्त 1922 में हुआ था। उनके पिता प्रतिष्ठित ताजमहल पैलेस होटल में प्रबंधक थे। विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध कला विद्यालयों में उनकी शिक्षा हुयी। 1944 में जे जे स्कूल से डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद वे यूरोप गए और 1945 से 1947 तक लंदन के हीथरले स्कूल आफ आर्ट में, 1948 से 1951 में पेरिस के एकेडेमिक आन्द्रे ल्होते में, 1953 से 1954 तक एकेडेमिक जूलियन तथा 1957 में एकेडेमिक डि ला ग्रैन्डे चौमियेरे में अपनी शिक्षा जारी रखी।
यूरोप से लौटने के बाद उन्होंने विविध देशों के आधुनिक कला केन्द्रों में सीखी गई तकनीक और शिल्प को अपनाते हुए शास्त्रीयतावाद, घनवाद, प्रभाववाद, सूफ़ी रहस्यवाद आदि कला शैलियों मे कार्य किया। विभिन्न यूरोपीय वादो से प्रभावित होकर सबावला की कला अजीब तरह से किसी भी शैली से मुक्त है, चाहे वह क्यूबिस्ट हो या प्रभाववादी, हालांकि उन्होंने दोनों स्कूलों का बारीकी से पालन किया। सबावला के लिए, शुरुआती वर्ष किसी भी संघर्षरत कलाकार के समान ही कठिन थे लेकिन तीव्र लगन, अटूट मेहनत और लम्बी साधना से उन्होंने कला की दुनिया में अपनी जगह बनाने में कामयाबी हासिल की। देश विदेश की अनेक एकल दीर्घाओं में उन्होंने अपने चित्रों को प्रदर्शित किया जिसमें ‘आर्ट नाउ इन इंडिया प्रदर्शनी’, ‘वेनिस द्विवार्षिकी’, काउन्सिल आफ ग्रेट ब्रिटेन की कला प्रदर्शनी, सातवीं भारतीय त्रिवार्षिकी, मुम्बई की ‘मास्टर्स आफ इंडिया’ प्रदर्शनी, दक्षिण एबे की इस्लामिक और भारत कला प्रदर्शनी, लंदन और क्रिस्टी की समकालीन भारतीय कला प्रदर्शनी, लंदन प्रमुख हैं। 1951 में मुम्बई के होटल ताज में उनकी पहली कला प्रदर्शनी लगी थी और उनकी अन्तिम कला प्रदर्शनी ‘रिकोर्सो’ आईकोन गैलरी, न्यूयार्क 2009 में आयोजित हुई थी।
अपनी प्रसिद्ध शैली के बारे में, सबावला ने खुद एक बार कहा था, “यह अकादमिक, प्रभाववादी और क्यूबिस्ट शैलियों का एक मिश्रण है। केवल एक अनुशासन में होने के बजाय, मैंने सोचा, ‘क्या मैं गठबंधन कर सकता हूं और अगर मैं उन्हें एक साथ जोड़ दूं तो क्या होगा?” यह वह गणना थी जो अंततः सबावला के आत्म अभिव्यक्ति और खोज व कलात्मक विकास में निरंतर परिवर्तन में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। साठ और सत्तर के दशक में सभी कलाकारों ने अपने कामों में प्रकाश के प्रभाव को रोमांटिक बनाया, लेकिन सबावला ने इसके सभी मूड और बारीकियों को पकड़ने के लिए बहुत आगे बढ़कर काम किया। सबावला ने मानव आकृतियों की खोज की, जो उनकी अकादमिक शैली के दिनों के अवशेष भी थे। सबावला प्रकाश को पारदर्शी समुद्रों, अपारदर्शी भूमि-स्थल और मुक्त-अस्थायी वायुमंडलीय रूपों की रहस्यमय कृति बनाने के लिए सतह को पार करने के लिए जाने जाते है। सबावला की शांत दुनिया, संयमी परिदृश्य और भावनात्मक स्थिति को सरल रूपों में इतनी क्षमता है कि कोई भी विचारशील दर्शक गहराई से प्रतिध्वनित हो सकता है। उनके चित्रों को देख कर सहज आभास होता है कि तूलिका कैनवस और रंग नहीं यह सिर्फ शैली होती है जो कलाकार के व्यक्तित्व को बनाती है। ‘आर्ट नाउ इन इंडिया प्रदर्शनी’, ‘वेनिस द्विवार्षिकी’, काउन्सिल आफ ग्रेट ब्रिटेन की कला प्रदर्शनी, सातवीं भारतीय त्रिवार्षिकी, मुम्बई की ‘मास्टर्स आफ इंडिया’ प्रदर्शनी, कामनवेल्थ कला महोत्सव लंदन, दक्षिण एबे की इस्लामिक और भारत कला प्रदर्शनी, लंदन और क्रिस्टी की समकालीन भारतीय कला प्रदर्शनी, लंदन, फुकूका आर्ट संग्रहालय टोकियो जैसी देश विदेश की अनेक प्रसिद्ध कला प्रदर्शनियों व कला दीर्घाओं में उन्होंने अपने चित्रों को प्रदर्शित कर दर्शकों से प्रशंसा पाई।
अपने जीवनकाल के लगभग 60 वर्ष कला को समर्पित करने वाले सबावाला को 1977 में पदमश्री और देश-विदेश के अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। सबावाला के जीवन पर ‘कलर आफ़ अबसेन्स’ और ‘दि इनहेरिटेंस आफ लाइट’ दो फिल्में बनाई गई है और ‘कलर आफ़ अब्सेन्स’ फ़िल्म बनाने वाली फ़िल्म निर्माता अरुण खोपकर को 1994 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। अपने अन्तिम दिनों तक आठ घंटे रोज अपने स्टूडियो में कैनवस के सामने कला के रहस्यों को चित्रित करने में व्यतीत करते फेफडे़ के कैंसर से लड़ते हुये इस महान कलाकार की आत्मा 2 सितम्बर 2011 को कला जगत मे अमर हो गई।