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आज हम पोस्ट ट्रुथ काल में हैं, तस्वीरों की क्रांति का युग है : डॉ. धनंजय चोपड़ा

प्रयागराज। हम पोस्ट ट्रुथ/ उत्तर सत्य के काल में हैं, तस्वीरों की क्रांति का युग है जहाँ उनके माध्यम से विचारों को सत्य से परे गढ़ने की मानो प्रतियोगिता चल रही है। आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का ज़माना है और ‘कम्युनिकेशन डिजाइनर’ तथा ‘कम्युनिकेशन आर्किटेक्ट’ कई तस्वीरों को हाइब्रिड कर सायबर वॉर में उनका उपयोग कर रहे हैं, समाज के विचारों को बदल रहे हैं, उनको दिशा दे रहे हैं, साठ और सत्तर के पूर्व दशकों की तरह तस्वीरें अनुभूति का साधन मात्र नहीं रह गई हैं, पहले वो बोलती थीं उनकी अपनी एक भाषा होती थी, आज अखबारों या सोशल मीडिया पर प्रसारित एक तस्वीर मात्र ही राष्ट्रों के राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल देने का माद्दा रख रही है। ज़्यादा दूर मत जाइए और कल्पना कीजिये देश के प्रधानमंत्री की मालदीव यात्रा की एक तस्वीर और एक देश की पर्यटन अर्थव्यवस्था का डावांडोल हो जाना। एथनोग्राफिक शोध में फोटोग्राफ की अलग ही महत्ता होती है। एक तरफ़ तो ये समुदाय के विचारों को समझने, उनके संदर्भ में तथ्य परक अनुसंधान कथन बनाने में सहायक हैं तो दूसरी तरफ़ ये शोध के आंकड़ों के विश्लेषण और उनकी व्याख्या हेतु विवरणात्मक मॉडल प्रस्तुत करने में मदद करते हैं। फोटोग्राफ दस्तावेजीकरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं, भौतिक साक्ष्य के रूप में भी और नए शोध के लिए मार्ग प्रशस्त करने के तंत्र के रूप में भी। ये राजनीतिक एजेंडा को समझने, किसी स्थापित मत अथवा सिद्धांत के विखंडन और विचारों के आलोचनात्मक परीक्षण में तथा विचारों को बनाने वालों की मंशा को समझने में भी सहायक होती हैं। फोटोग्राफी के संदर्भ में ये गूढ़ बातें लोकप्रिय लेखक, विचारक, धर्मवीर भारती पुरस्कार और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान प्राप्त और पत्रकारिता के स्तंभ के रूप में प्रख्यात, सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम समन्वयक डॉ. धनंजय चोपड़ा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग द्वारा शनिवार को आयोजित “मानववैज्ञानिक क्षेत्रकार्य के दौरान कैमरे का उपयोग: दस्तावेजीकरण का एक वैज्ञानिक आधार” विषयक एक विशेष व्याख्यान में कहीं।

उन्होंने कहा, विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि पिक्चर कंपोजिशन फोटोग्राफिक दस्तावेजीकरण में बहुत महत्वपूर्ण अंश है। फ़ोटो खींचते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सब कुछ कैद करने की बजाय फ्रेम पर फ़ोकस करना चाहिए। चूँकि फोटोग्राफ शोधकर्ता और अध्ययनक्षेत्र एवं उसके विषय के बीच अंतरसंबंध को स्थापित करता है, यह फील्डवर्क का साक्ष्य होता है, शोध विनिबंध की प्रमाणिकता को तय करता है और फील्ड ऑब्सर्वशन्स को रेखांकित करने में शोधार्थी की मदद करता है अतः उनकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। फ़ोटो खींचते समय “रुल ऑफ थर्ड्स” को एक तकनीकी निर्देशक नियम की तरह से इस्तेमाल कर तस्वीर में आकर्षण के कुछ पुट डाल सकते हैं। इसमें तस्वीर के फ्रेम को 2 क्षैतिज और 2 खड़ी रेखाओं की मदद से 9 ग्रिडों (बराबर चौकोर खानों या आयतों) में विभाजित किया जाता है और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि तस्वीर का मुख्य तत्व किसी रेखा पर या किसी कटान बिंदु पर स्थित हो। ऐसी खिंची तस्वीर अधिक आकर्षक होती है और दर्शकों की नज़र उनपर अधिक देर तक ठहरती है। हालांकि, मज़बूत और दमदार फ्रेम कंपोज करने के लिए रुल ऑफ थर्ड्स” एक गाइडलाइन की तरह लिया जाना चाहिए न कि किसी अनिवार्य नियम की तरह। मानववैज्ञानिक शोध के दौरान एक अनुभवी फोटोग्राफर के रूप में आप तभी स्थापित हो सकते हैं जब आप ‘संवेदना’ की जगह ‘सम वेदना’/ एम्पैथी को मूल में रखेंगे, फोटोग्राफ को दस्तावेज का अंग मानेंगे और जिस समाज को समझने के लिए फील्ड में जाएंगे उसको अपने मानकों से जज नहीं करेंगे अर्थात सांस्कृतिक सापेक्षवाद का नजरिया रखेंगे। इसका ध्यान रखें कि तस्वीरें खुद ब खुद अपनी कहानी बयां करें और दर्शक देखते ही समझ जाएं आप क्या कहना चाहते हैं। शोधार्थियों और विद्यार्थियों ने सत्र के अंत में अनेक प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा शांत की।

कार्यक्रम के आरंभ में विभागाध्यक्ष प्रोफेसर राहुल पटेल ने विषय प्रवर्तन किया। उन्होंने स्वागत भाषण में मानववैज्ञानिक शोध में फोटोग्राफी के महत्व पर प्रकाश डाला। सत्र का संचालन डॉ संजय कुमार द्विवेदी, पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलो, आईसीएसएसआर, नई दिल्ली के द्वारा किया गया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ. खिरोद मोहराना ने किया। इस अवसर पर विभाग के शोधार्थी विनय कुमार यादव, साक्षी, दीपशिखा, प्रभाकर, प्रशांत, आनंद, यादवेंद्र, पूरा छात्र हर्षित तथा बीए और बीएससी तृतीय वर्ष के उत्तराखंड जाने वाले अध्ययन दल के सभी विद्यार्थी उपस्थित रहे।

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