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आज है भारत के महान दार्शनिक, विचारक श्री अरबिंदो घोष की 150वीं जयंती, प्रधानमंत्री ने किया याद

नई दिल्ली। भारत के महान दार्शनिक, विचारक श्री अरबिंदो घोष की 150वीं जयंती के अवसर पर आज सोमवार, 15 अगस्त 2022 को प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा,

“आज श्री अरबिंदो की जयंती है। वे एक तीक्ष्ण बुद्धि वाले व्यक्ति थे, जिनके पास हमारे राष्ट्र के लिए एक स्पष्ट विज़न था। शिक्षा, बौद्धिक कौशल और ताकत पर उनका जोर हमें हमेशा प्रेरित करता रहेगा। पुडुचेरी और तमिलनाडु में उनसे जुड़े कुछ स्थानों की मेरी यात्राओं की कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ।”

“#MannKiBaat के एक एपिसोड में मैंने श्री अरबिंदो के विचारों की महानता और वे हमें आत्मनिर्भरता तथा ज्ञान-प्राप्ति के बारे में क्या शिक्षा देते हैं, पर भी प्रकाश डाला था।”

 

श्री अरबिंदो के बारे में

अरबिंद कृष्णधन घोष या श्री अरबिंदो एक महान योगी और गुरु होने के साथ साथ गुरु और दार्शनिक भी थे। ईनका जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता पश्चिम बंगाल में हुआ था। इनके पिता कृष्णधन घोष एक डॉक्टर थे। युवा-अवस्था में ही इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के साथ देश की आज़ादी में हिस्सा लिया। समय ढलते ये योगी बन गए और इन्होंने पांडिचेरी में खुद का एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद तथा ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होने के कारण इन्होंने योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखें। श्री अरबिंदो के जीवन का सही प्रभाव विश्वभर के दर्शन शास्त्र पर पड़ रहा है। अलीपुर सेंट्रल जेल से छुटने के बाद श्री अरबिंदो का जीवन ज्यादातर योग और ध्यान में गुजरा है। 

श्री अरबिंदो के पिता डॉ कृष्णधन घोष चाहते थे कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण कर उच्च सरकारी पद प्राप्त करें। इसी कारणवश उन्होंने सिर्फ 7 वर्ष के उम्र में ही श्री अरबिंदो को पढ़ने इंग्लैंड भेज दिया। 18 वर्ष के होते ही श्री अरबिंदो ने ICS की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। 18 साल की आयु में उन्हें कैंब्रिज में प्रवेश मिल गया। अरविंद घोष ना केवल आध्यात्मिक प्रकृति के धनी थे बल्कि उनकी उच्च साहित्यिक क्षमता उनके माँ की शैली की थी। इसके साथ ही साथ उन्हें अंग्रेज़ी, फ्रेंच, ग्रीक, जर्मन और इटालियन जैसे कई भाषाओं में निपुणता थी। सभी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी वे घुड़सवारी के परीक्षा में विफल रहें जिसके कारण उन्हें भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला। 

सन् 1893 में श्री अरबिंदो भारत लौट आए और बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में 750 रुपये वेतन पर उपप्रधानाचार्य नियुक्त किए गए। बड़ौदा के राजा द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। 1893 से 1906 तक उन्होंने संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का विस्तार रूप से अध्ययन किया। अलीपुर बम केस श्री अरबिंदो के जीवन का अहम हिस्सा था। एक साल के लिए उन्हें सेंट्रल जेल के सेल में रखा गया जहाँ उन्होंने एक सपना देखा कि भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का उपदेश दिया। उन्होंने कैद में ही गीता की शिक्षा लेना प्राप्त की और निरंतर अभ्यास किया। वह अपनी अवधि से जल्दी बरी हो गए थे। रिहाई के बाद उन्होंने कई ध्यान किए और उनपर निरंतर अभ्यास करते रहें। सन् 1910 में श्री अरबिंदो कलकत्ता छोड़कर पांडिचेरी बस गए। वहाँ उन्होंने एक संस्थान बनाई और एक आश्रम का निर्माण किया। सन् 1914 में श्री अरबिंदो ने आर्य नामक दार्शनिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। अगले 6 सालों में उन्होंने कई महत्वपूर्ण रचनाएँ की। कई शास्त्रों और वेदों का ज्ञान उन्होंने जेल में ही प्रारंभ कर दी थी। सन् 1926 में श्री अरबिंदो सार्वजनिक जीवन में लीन हो गए। 1906 में बंगाल विभाजन के बाद श्री अरबिंदो ने इस्तीफा दे दिया और देश की आज़ादी के लिए आंदोलनों में सक्रिय होने लगे। स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने के साथ साथ उन्होनें अंग्रेज़ी दैनिक ‘वंदे मातरम’ पत्रिका का प्रकाशन किया और निर्भय होकर लेख लिखें। 

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