दिनेश ‘दीप’
खट्टी मीठी यादें लेकर जब हम लौटे गांव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब नहीं रही वो छांव रे
अम्मा का वो हमें जगाना और जिज्जी का कुआं को जाना
जगते जगते फिर सो जाना तब नन्ना का वो चिल्लाना
याद हमें चिड़ियों की चंह चंह कौवे की कांव-कांव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब…
कच्ची मिट्टी की दीवारें कच्चा कच्चा आंगन
गोबर गेरू चौंक सजा तब लगता था घर पावन
नई बहू का हथा लगा फिर अंदर धरना पांव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब…..
पट्टी बोरका में पढ़ने शंकर बब्बा घर जाना
सेल तोड़ करखा घिसना फिर पट्टी को चमकाना
वो खड़िया में कलम डुबो फिर लिखना कोई सिखाव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब…..
गुल्ली डंडा और सिलोर तब खेले खूब चिरंगे
अम्मा नहलाएं कुआं खरौआ हम भागे घर को नंगे
वो सर्दी कौडे के किस्से फिर से कोई सुनाव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब…..
बैजू नन्ना की दुकान वो 10 पैसे 10 कंपट
चुपके से स्कूल निकल फिर खा लेते थे झटपट
10 पैसे मुट्ठी भर बिरचुन फिर से कोई दिलाव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब…..
अब तक नहीं बिसारा हमने मेला झिझिया पूनौ
बुआ का आना पैसे देना मिलना खुशियां दोनों
आलू बंडा मोती नन्ना के मेले मे कोई खिलाव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब….
नाग पंचमी अलरा, गौरा मुस्कुरा के दिखे जवारे
घूम घूम कर मेला देखें होते वारे न्यारे
कम पैसों में ज्यादा चक्कर पर न थकते पांव रे
दरवाजे की नीम नहीं अब नहीं रही वो छांव रे