मोनिका वर्मा
ब्रज की होली के बाद बनारस की होली सबसे प्रिय मानी जाती है। भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में घुली बनारसी होली की बात ही निराली है। फागुन का सुहानापन बनारस की होली में ऐसी जीवंतता भरता है कि फिजा में रंगों का बखूबी अहसास होता है। बाबा विश्वनाथ की नगरी में फागुनी बयार भारतीय संस्कृति का दीदार कराती है, संकरी गलियों से होली की सुरीली धुन या चौराहों के होली मिलन समारोह बेजोड़ हैं। बाबा भोलेनाथ रंगभरी एकादशी को मां पार्वती का गौना कराने जाते हैं उसी दिन से यहां रंग, अबीर, गुलाल की होली शुरू हो जाती है और लगातार होलिका दहन के अगले दिन तक चलती रहती है। इस होली के त्यौहार को जहां काशी के लोग बड़े ही अलग अंदाज में मनाते हैं तो वही विदेशी सैलानी भी अपने आप को काशी आने से नहीं रोक पाते हैं।
रंग भरी एकादशी से शुरू होती है होली
बनारस में होली की शुरूआत रंग भरी एकादशी से होती है। ऐसी मान्यता है कि रंग भरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ माता पार्वती और पुत्र गणेश के साथ गौना करा कर काशी लौटते हैं। उनके काशी लौटने पर तीन लोकों के लोग उनका स्वागत करते हैं। इस दिन बाबा विश्वनाथ के साथ काशी के लोग रंग-गुलाल खेलते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ शहर की गली-गली में मौजूद मंदिर रंग-गुलाल से नहा उठते हैं।
महाश्मशान में होली
महादेव की नगरी में रंग भरी एकादशी के दूसरे दिन महाश्मशान में होली खेली जाती है। यह दुनिया की सबसे अनोखी होली है। ऐसी मान्यता है कि जब भगवान शिव रंग भरी एकादशी के दिन माता पार्वती और पुत्र गणेश के साथ गौना कराकर काशी लौटाते हैं तो उनका स्वागत सभी लोकों के लोग करते हैं। उसमें शिव के भूत-पिशाच भक्त गण और दृश्य-अदृश्य आत्माएं मौजूद नहीं होतीं। इसलिए रंग भरी एकादशी के दूसरे दिन महाश्मशान में महादेव अपने भक्तों के साथ भस्म से होली खेलते हैं। यह भस्म कोई साधारण भस्म नहीं होती, इंसान के शव जलने के बाद पैदा होने वाली राख होती है।
मणिकर्णिका घाट के अलावा हरिश्चन्द्र घाट पर भी खेलते हैं भस्म होली
मणिकर्णिका घाट पर विधिवत पूजन के बाद हर हर महादेव के जयघोष के साथ शुरू होता इस अद्भुत होली का खेल ऐसी मान्यता है कि शिव स्वयं आकर खेलते हैं भस्म होली। मणिकर्णिका घाट के अलावा वाराणसी के श्मशान हरिश्चंद्र घाट पर भी भस्म की होली का आयोजन होता है। यहां रंगभरी एकादशी के दिन ही भस्म की होली खेली जाती है। दोनों ही घाटों पर मसाने की होली का अद्भुत नजारा होता है। जिसे देखने के लिए दूर- दूर से लोग काशी आते हैं।
मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाह क्रिया की थी। तब से वह महाश्मशान है, जहां चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती। एक चिता के बुझने से पूर्व ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है। वह मृत्यु की लौ है जो कभी नहीं बुझती, जीवन की हर ज्योति अंततः उसी लौ में समाहित हो जाती है। शिव संहार के देवता हैं न, तो इसलिए मणिकर्णिका की ज्योति शिव की ज्योति जैसी ही है, जिसमें अंततः सभी को समाहित हो ही जाना है। इसी मणिकर्णिका के महाश्मशान में शिव होली खेलते हैं।
शमशान में होली खेलने का अर्थ
मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से भयभीत होता है। उसे हर भय का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु ही होती है। श्मशान में होली खेलने का अर्थ है उस भय से मुक्ति पा लेना। शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है, शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा,भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी खुशी मनाया जाय।
शिव जब अपने कंधे पर देवी सती का शव ले कर नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम पर थे। शिव शिव थे, वे रुके तो उसी प्रिय पत्नी की चिता भस्म से होली खेल कर युगों युगों के लिए वैरागी हो गए। मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है न। पर मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता, वह एक मोह से छूटता है तो दूसरे के फंदे में फंस जाता है। शायद यही मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त नहीं होने देता। कहते हैं काशी शिव के त्रिशूल पर टिकी है। शिव की अपनी नगरी है काशी, कैलाश के बाद उन्हें सबसे अधिक काशी ही प्रिय है। फागुन में काशी का कण कण फ़ाग गाता है-“खेले मशाने में होली दिगम्बर खेले मशाने में होली” सच यही है कि शिव के साथ साथ हर जीव संसार के इस महाश्मशान में होली ही खेल रहा है। तबतक, तबतक उस मणिकर्णिका की ज्योति में समाहित नहीं हो जाता।