कानपुर नगर। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी, पत्रकारिता के स्तंभ और लेखक गणेश शंकर विद्यार्थी निडर, निर्भीक और बेजोड़ कलमकार थे। जीवन में कई घटनाएं उल्लेखनीय रहीं। प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लेखन और संपादन करने के बाद अपना अखबार निकालना, गांधी जी से मुलाकात के बाद असहयोग आंदोलन में शरीक होना, आग उगलते भाषण देना, ब्रिटिश राज में जेल जाना, भगत सिंह, आज़ाद और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गजों से जुड़ना आदि. लेकिन सबसे अहम घटना उनकी मौत ही थी. एक ऐसी मौत, जो संदेश बन गई।
प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से जो कहानियां अब तक सामने आई हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस के सम्मलेन के लिए विद्यार्थी गृहनगर कानपुर से कराची जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी खबर आई कि शहर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कलम चलाने वाले विद्यार्थी को जैसे ही खबर मिली, उनसे रुका नहीं गया नंगे पैर और बगैर कोई सुरक्षा लिये वह करीब 9 बजे सुबह घर से निकले थे। चारों तरफ हिंसा का माहौल था और इस बौखलाई भीड़ के बीच विद्यार्थी पीड़ितों को बचा भी रहे थे और दंगाइयों को मारकाट करने से रोक रहे थे। भीड़ को समझाने वालों में पहले विद्यार्थी के साथ कुछ पुलिसकर्मी, कलेक्टर और कुछ कार्यकर्ता थे। लेकिन, जैसे ही दंगे हिंसक तौर पर भड़के, पगलाई भीड़ के बीच शांति और प्रेम की राह दिखाते विद्यार्थी अकेले रह गए थे।
आखिरकार विद्यार्थी की मौत बहुत दर्दनाक थी। अपने संदेशों को जीने वाले लेखक की लाश की बड़ी दुर्गति हुई दो दिन बाद एक खैराती अस्पताल में उनकी लाश की शिनाख्त करना टेढ़ी खीर हो गया था। क्योंकि उनका चेहरा बुरी तरह विकृत हो चुका था। खादी के सफेद कपड़ों से लोग अंदाज़ा लगा रहे थे. फिर उनके हेयरस्टाइल, बाज़ू पर गुदे नाम गजेंद्र और उनकी जेब से मिली उनके हाथ की लिखी चिट्ठियों से उन्हें पहचान पाने में मदद मिली।
पुरुषोत्तम दास टंडन और बालकृष्ण शर्मा जब कराची कांग्रेस सम्मेलन से लौटकर आए, तब जाकर 29 मार्च की सुबह विद्यार्थी का अंतिम संस्कार किया जा सका था। विद्यार्थी की मौत की खबर आग की तरह फैली और गांधीजी ने उन्हें शानदार शब्दों में श्रद्धांजलि दी। जानकार कहते हैं कि हिंदू मुस्लिम सद्भाव के लिए जीवन देने की कहानी गांधी के लिए भी राह दिखाने वाली साबित हुई। जिन्होंने अपनी कलम के बूते पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा दिलाने में भूमिका निभाई थी।
उनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया में कायस्थ परिवार में हुआ था। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में ही अपनी पहली किताब ‘हमारी आत्मोसर्गता’ लिखी थी। गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी पूरी जिंदगी में 5 बार जेल गए। हम तो अपना काम करें। गणेश शंकर विद्यार्थी ने किसानों एवं मजदूरों को हक दिलाने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया तथा आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे। वे छात्र जीवन से ही वामपंथी आंदोलनों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।