जीतू बैरागी
वर्तमान समय मे देश और दुनिया में जलवायु संकट समेत अन्य कई वैश्विक संकट सामने खड़े हैं। इस कारण पृथ्वी के Ecosystem पर तो बुरा असर पड़ ही रहा है, मौसम मे भी उतार-चढ़ाव जारी है जिससे खेती-किसानी सीधे तौर पर प्रभावित होती है। लिहाजा किसान अनिश्चितता में बना हुआ है, उत्पादन सीधे तौर पर प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए इसी वर्ष मार्च में ही heat wave चलने के कारण गेहूं के उत्पादन में सीधा फर्क दिखाई पड़ा व दाना भी कमजोर हुआ। पिछले साल तुलना में इस बार गेहूं का उत्पादन भी कम हुआ। वर्ष 2018 के बाद से बुंदेलखंड क्षेत्र की मानसूनी बारिश एक महीने पीछे हो गयी है और बाद में अधिकाधिक बारिश हो जाने के कारण फसलें खराब हो जाती हैं, सड़ जाती हैं। इस तरह किसान इस मौसम परिवर्तन, धरती के ताप का लगातार बढ़ने के कारण लगातार दयनीय स्थिति को प्राप्त हो रहा है। लेकिन यह सब अचानक तो नही हो गया है, एक दिन की भी बात नहीं है तो फिर विचार करते हैं ये हुआ कैसे, आया कहां से?
भारत वर्ष में खेती का इतिहास लगभग 10000 वर्ष पुराना है (लगभग श्री कृष्ण के समय से), तब जंगलों को साफ करने से लेकर, अपने अथक श्रम से खेतों को उर्वर बनाने तक की यात्रा 1960 तक बदस्तूर जारी रही। जब तक 1965 में हरित क्रांति नाम की खेतों को बर्बाद करने की क्रांति, जैव विविधता को खत्म करने की क्रांति, monocroping की क्रांति, बीमारी बढ़ाने की क्रांति, प्रति व्यक्ति पोषण घटाने की क्रांति नहीं आ गयी। ऐसा नहीं है कि हरित क्रांति ने कुछ नही दिया, धान (चावल) और गेंहू का रिकार्ड उत्पादन बढ़ाया और गेहूं खाद्यान्न में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता दिया लेकिन खेत की उर्वरता को हटाकर, प्राकृतिक नियमों को बिना समझे। किसानों ने भी गेहूं और चावल के बढे उत्पादन को देखकर धीरे-धीरे ही सही स्वीकार व अंगीकार कर लिया बिना किसी दूरदृष्टिता के, सरकारों ने भी इसे खूब प्रमोट किया व अपनी नीतियाँ हरित क्रांति के पक्ष में बनाई व लागू की।
लिहाजा रासायनिक खेती का आगमन हुआ और सिंथेटिक रसायन खेती में फसलों के पोषण के लिए आ गए तो किसानों को अपनी गोबर से बनी खाद से दूर किया, जैवविविधता भी खत्म हुई तो साथ ही मशीनरी (ट्रैक्टर इत्यादि) आ गई तो पशुओं पर निर्भरता कम हो गयी व पशु खेत व किसान से दूर होते चले गए, जिसके परिणामस्वरूप आज अन्ना प्रथा खड़ी है, बीज hybrid प्रकार से शुरू होकर GMO modified व नैनो टेक्नोलॉजी तक पहुँच गए और हमारे हाथ से बीज भी छूट गए, प्लानिंग बाजार की हो गयी और इस नवीन खेती मे पानी की खपत 10 गुना तक बढ़ गयी। जिससे वर्तमान में जल संकट खड़ा हो गया है। इस सबके परिणामस्वरूप खेती मे लागत हद से ज्यादा बढ़ती चली गयी व किसान उतने ही पतले होते गए, कर्ज से लदते गए व आत्महत्या तक करने को मजबूर हो गए। इन सभी संकटों से हमारी वर्तमान कृषि व कृषक जूझ रहे हैं, पर्यावरणीय समस्या पूरी धरती को प्रभावित कर रही है।
हम जानते हैं कि समस्या का गायन समाधान नहीं है। इसलिए इनके वैश्विक समाधान के लिए ऐसी कृषि पद्धति की आवश्यकता है जो किसान को समृद्ध करने के साथ-साथ, प्रकृति को भी संतुलित करती हो व वैश्विक समस्याओं के समाधान देती हो, तो अब हमें प्रकृति से संबंध की खेती मतलब प्रकृति के साथ तीन नैसर्गिक संबंधों की पहचान (मतलब पदार्थ अवस्था (मिट्टी,हवा,पानी,धातुओं) से संबंध, प्राण अवस्था (वनस्पति व बीजों) से संबंध, जीव अवस्था (जीव- जंतुओं,पशुओं व उनके वंश) से संबंध के पहचान एवं निर्वाह की आवश्यकता है यानी कि आवर्तनशील खेती की आवश्यकता है। आवर्तनशील खेती #सह अस्तित्ववाद पर आधारित है। आवर्तनशील खेती #मानव-मानव के साथ व मानव-प्रकृति के साथ उसके संबंध को बताती है व निर्वाह करने के क्रम मे जीने व खेती का एक तरीका देती है, जो सर्वतोमुखी समाधान प्रस्तुत करता है।।
मिट्टी की उर्वरता को संतुलित बनाए रखते हुए, प्रकृति को समझकर प्राकृतिक नियमों का पालन करने करते हुए, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अपने परिवार के लिए रोटी, कपड़ा, मकान एवं औषधि संबंधी वस्तुओं को पैदा करना एवं प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं को प्रोसेस करना, आवर्तनशील खेती है।
आवर्तनशील खेती के पांच कदम हैं- खेत के एक तिहाई हिस्से में वन-बाग (फलों व लकड़ी) की खेती करना, दूसरे तिहाई हिस्से में पशुओं के लिए गौशाला व चारागाह का इंतजाम करना, तीसरे तिहाई हिस्से में अपने परिवार के लिए सभी प्रकार का खाद्यान्न का उत्पादन करना, उपभोग (आवश्यकता से अधिक) से बचे हुए शेष को प्रोसेस करना. शुद्ध आय के एक निश्चित हिस्से को अपनों के कमजोर (शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय व रोजगार से वंचित) लोगों को अपने बराबर मे लाने के लिए लगाना (Society Welfare के लिए), इसके अलावा खेत के दसवें अनुपात में बारिश के पानी का संरक्षण करने के लिए किसी वॉटर बॉडी (तालाब इत्यादि) को बनाना।
जैसे ही पेड़ों का एक निश्चित अनुपात पूरी धरती मे हो जायेगा, ऋतु संतुलन अपने आप हो जायेगा व धरती का ताप नियंत्रित होने लगेगा, जिससे ecosystem संतुलित होने की एक संभावना दिखाई देती है। पशुओं के एक निश्चित अनुपात में हो जाने से बाजार की खाद यानी रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता खत्म हो जायेगी क्योंकि किसानों के पास अपनी कंपोस्ट होगी जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति लगातार बढ़ती जाती है। विविध प्रकार का खाद्यान्न होने से पोषण मिल सकेगा व गुणवत्ता युक्त भोजन होगा, खाद्यान्न पर आत्मनिर्भर भी हो पाएंगे। प्रोसेसिंग के माध्यम किसान अपनी वस्तु के मालिक बन पाएंगे व उचित रेट ले सकेंगे साथ ही अपनी वस्तु के रेट भी स्वयं तय कर पाएंगे। सामाजिक जुड़ाव होने से किसानी फलीभूत होगी, क्योंकि खेती सामाजिक पेशा है व्यक्तिगत नही। इससे हम एक स्वस्थ समाज की रचना कर पाएंगे व रचनात्मक कार्यों में गति आ सकेगी। अब आवर्तनशील खेती को बड़े आयाम मे रख के देखते हैं तो दुनिया के प्रमुख समस्याओं के समाधान के लिए एक मार्ग प्रशस्त करती है।
लेखक के अपने स्वतंत्र विचार हैं…