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अगेती अरहर की वैज्ञानिक खेती

डॉ. अखिलेश मिश्रा, प्राध्यापक (शस्य विज्ञान), दलहन अनुभाग, चंद्र शेखर आज़ाद कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर

अरहर हमारे देश की प्रमुख दलहनी फसल है जिसको मुख्य रूप से खरीफ के मौसम में उगाया जाता है। यह फसल दलहन उत्पादन के साथ-साथ वातावरण की नाइट्रोजन को भूमि के अंदर एकत्र करती रहती है। जिससे भूमि की उर्वरता में भी सुधार होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियों मृदा में 150-200 कि०ग्रा० तक वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथमिकता से बोई जाती है। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी सिद्ध हो सकती है। क्योंकि गहरी जड़ के एवं अधिक तापक्रम की स्थिति में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्व उपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्रप्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं। अरहर की दाल में लगभग 20-22 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है, दलहन प्रोटीन का अच्छा स्रोत होने से भारतीयों के भोजन में प्रमुखता से इसका समावेश होता है।

अरहर की प्रति 100 ग्राम दाल से ऊर्जा-343 किलो कैलोरी, कार्बोहाइड्रेट-62.78 ग्राम, फाइबर 15 ग्राम, प्रोटीन 21.7 ग्राम, विटामिन जैसे, थाइमिन (बी1) 0.643 मिग्रा, रिबोफैविविन (बी2) (16%) 0.187 मिग्रा, नियासिन (बी3) 2. 965 मिग्रा तथा खनिज पदार्थ जैसे; कैल्शियम, 130 मिग्रा, आयरन 5.23 मिग्रा, मैग्नीशियम 183 मिग्रा, मैंगनीज 1.791 मिग्रा, फास्फोरस 367 मिग्रा, पोटेशियम 1392 मिग्रा, सोडियम 17 मिग्रा, जिंक 2.76 मिग्रा आदि पोषक तत्व मिलते हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी: हल्की दोमट या मध्यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में फास्फोरस तथा पी. एच. मान 7-8 के बीच हो व समुचित जल निकासी वाली भूमि इस फसल के लिये उपयुक्त है। एक जुताई मिट्टी पलट हल से करने के बाद 2-3 जुताइयाँ हैरो या कल्टीवेटर से करे व पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। जल निकासी की समुचित व्यवस्था वाले खेतों में फसल सफलता से उगाई जा सकती है । 

बुवाई का समय:  अरहर की अगेती फसल की बुवाई मई माह के द्वितीय पखवाड़े से जून माह के प्रथम सप्ताह तक कर लेना चाहिए।

बीज की मात्रा: शीघ्र पकने वाली/अगेती अरहर प्रजातियों का 15 से 20 किलो ग्राम बीज/हेक्टर की दर से बोना चाहिए। बोते समय लाइनों के बीच की दूरी 50 से 75 सें.मी. रखना चाहिए। तथा पौधे से पौधे का अंतराल 15-20 से.मी. रखना चाहिए।

बीजशोधन एवं बीजोपचार: बुवाई के 3-4 घंटे पूर्व ट्रायकोडर्मा बिरिडी 10 ग्राम/किलो अथवा 2 ग्राम थायरम+1 ग्राम कार्बेन्डेजिम नामक फफूदनाशक दवा प्रति किलो बीज की दर से बीज का शोधन करने से फसल को बीज जनित फफूंद रोगों से बचाया जा सकता है। बीज शोधन के उपरांत अरहर का राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. कल्चर द्वारा प्रति पैकेट (200 ग्राम) 10 किलो बीज  की दर से बीजोपचार करें। बीज को कल्चर से उपचार करने के बाद छाया में सुखाकर बुवाई करें। 

उन्नत किस्मों का चुनाव: भूमि का प्रकार, बोने का समय, जलवायु आदि के आधार पर अरहर की जातियों का चुनाव करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध हो बहुफसली फसल पद्धति हो या रेतीली हल्की ढलान व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि में जल्दी पकने वाली जातियां बोनी चाहिए।

अरहर की उन्नत किस्म: अगेती फसल की बुवाई हेतु पारस, उपास 120, पूसा 992, टाइप 21 एवं पी ए 6 आदि उपयुक्त प्रजातियां हैं।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी: हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत की जुताई एक बार मिटटी पलट हल से करने के बाद 2 या 3 बार कल्टीवेटर या हैरो से भलीभांति जुताई करके पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिए।

उर्वरक का प्रयोग: बुवाई के समय 20 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस, 20 कि.ग्रा. पोटा व 20 कि.ग्रा. गंधक प्रति हैक्टर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिये। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर आखिरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्छी बढ़ोतरी होती है। 

सिंचाई: जहां सिंचाई की सुविधा हो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले व दूसरी फलियां बनने की अवस्था पर करने से पैदावार अच्छी होती है।

खरपतवार प्रबंधन: खरपतवार नियंत्रण के लिये 20-25 दिन में पहली निराई तथा फूल आने से पूर्व दूसरी निराई करें। 2-3 बार निराई-गुड़ाई करने से अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है। पेंडीमेथोलिन 3.3 लीटर मात्रा प्रति हैक्टर बुवाई के 72 घंटे के अंदर 600-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रण होता है। निदानाषक प्रयोग के बाद एक निराई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना चाहिये। अंतरवर्तीय फसल पध्दति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होती है। मुख्य फसल में कीटो का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी फसल से सुनिष्चित लाभ होता है। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पध्दति में कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। अरहर की फसल के साथ मक्का/ज्वार/मूंग/मूंगफली या सोयाबीन 1:2 कतारों के अनुपात में उतम अंतवर्तीय फसल उगाने की पध्दती हैं।

फसल सुरक्षा

रोग नियंत्रण:

  1. उकठा रोग: इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणता फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई देते हैं। नवम्बर से जनवरी महीनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें जड़े सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उंचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिये रोग रोधी जातियां बोनी चाहिए। उन्नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोयें। गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।
  2. बंझा रोग: यह रोग विषाणु से फैलता है। इसके लक्षण पौधे के ऊपरी शाखाओं में पत्तियां छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल फली नहीं लगती है। ग्रसित पौधों में पत्तियां अधिक लगती है। यह रोग, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिये।
  3. झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटालेक्सिल फफूंदनाशक दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई मेड (रिज़) पर करना चाहिये।

कीट नियंत्रण:

  1. फली मक्खी: यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इसी अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौद बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्य विकास जाता है। मादा छोटे व काले रंग की होती है जो वृध्दिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से रोगट बाहर आते हैं और दानों को खाने लगते हैं। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है। जिसके कारण दानों के तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
  2. फली छेदक: छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे उत्तकों को खाती है व बड़े होने पर कलियों, फूल, फलियाँ व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढ़े-मेढ़े छेद बनाती है। इस की कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियां पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियां होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
  3. फल्ली का मत्कुण: सादा प्राय: फल्लियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते हैं। इस कीट के विषु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं, जिससे फली आड़ी तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते हैं। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
  4. ब्रिस्टल बीटल: ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उड़द, तथा अन्य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकड़कर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है। कीट प्रबंधन कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाना आवश्यक है।
  5. गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें
  6. शुद्ध अरहर न बोयें 
  7. फसल चक्र अपनाएं
  8. क्षेत्र में एक ही समय पर बोनी करना चाहिये
  9. रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
  10. अरहर में अंतरवर्ती फसलें जैसे ज्वार, मक्का या मूंगफली को लेना चाहिये।

कीट नियंत्रण: 

यांत्रिक विधि:

  1. प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए
  2. फेरोमोन प्रपंच लगाये
  3. पौधों को हिलाकर इल्लिया को गिराये एवं उनकी इकट्ठा करके नष्ट करें।
  4. खेत में चिड़ियाओं के बैठने की व्यवस्था करें। 

जैविक नियंत्रण विधि:

एन.पी.वी. 500 एल.ई. प्रति हेक्टर/ यू.वी. रिटारडेंट 0.1 प्रतिशत/ गुड 0.5 प्रतिशत मिश्रण को शाम के समय छिड़काव करें। बेसिलस पूरयन्सीस 1000 ग्राम प्रति हेक्टर/ टिनोपाल 0.1 प्रतिशत/ गुड 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।

जैव-पौध पदार्थों के छिड़काव द्वारा: 1. निंबोली सत 5 प्रतिशत का छिड़काव करें। 2. नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली. / 1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेडोविट टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। 3. निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।

रासायनिक नियंत्रण:

आवश्यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का छिड़काव या भुरकाव करना चाहिये।

  1. फली मक्खी नियंत्रण हेतु सर्वांगीण कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. 0.03 प्रतिशत, मोनोक्रोटोफॉस 36 ई.सी. 0.04 प्रतिशत आदि।
  2. फली छेदक इल्लियां के नियंत्रण हेतु- फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्वीनालफास 1.5 प्रतिशत या क्वीनालफास 25 ईसी 0.05 प्रतिशत या क्लोरोपायरीफॉस 20 ईसी 0.6 प्रतिशत या फेनवलरेट 20 ईसी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्ल्यू.पी. 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर है, या प्रोफेनोफॉस 50 ईसी 1000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
  3. दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिड़काव सर्वांगीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वागीण कीटनाशक का छिड़काव करें। कीटनाशक के 3 छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करना चाहिये।

कटाई, मडाई एवं भंडारण: जब पौधे की पत्तियां गिरने लगे एवं फलियां सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाये तब फसल को काट लेना चाहिये खलिहान में 8-10 दिन धूप में सुखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाकर भंडारित करना चाहिये।

उपज: उन्नत उत्पादन तकनीक अपनाकर अरहर की खेती करने से असिंचित अवस्था में 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज और सिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टर उपज प्राप्त की जा सकती है।

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