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सरसों-चना का अंतः शस्य पद्धतियों में जैव गहन पूरक प्रणाली के अंतर्गत अधिक लाभ की तकनीक : डॉ. मुनीश कुमार

कानपुर। चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. डी.आर. सिंह के निर्देश के क्रम में गुरुवार को भूमि संरक्षण एवं जल प्रबंधन विभाग के प्रोफेसर डॉ. मुनीश कुमार ने किसान भाइयों के लिए सरसों- चना का अंतः शस्य पद्धतियों में जैव गहन पूरक प्रणाली के अंतर्गत अधिक लाभ की तकनीकी विषय पर एडवाइजरी जारी की है। डॉ कुमार ने बताया कि तिलहनी फसलों जैसे राई सरसों का भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। राई सरसों तिलहन समूह की मुख्य फसल है। तिलहनी फसलों के उत्पादन में उत्तर प्रदेश तीसरे स्थान पर है उन्होंने बताया कि वर्ष 2018-19 के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में राई सरसों का कुल उत्पादन 11.53 लाख मीट्रिक टन जो 7.53 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में रिकॉर्ड किया गया। उन्होंने कहा राई सरसों में कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर की अनेक प्रमुख प्रजातियां संपूर्ण प्रदेश में ही नहीं वरन देश में उगाई जा रही हैं, जिनमें तेल की मात्रा 39 से 40% तक पाई जाती है। जो भारत में होने वाले तेल के आयात को नियंत्रण रखने में सहायक सिद्ध हो रही। उन्होंने कहा इसी प्रकार से चने की विश्वविद्यालय द्वारा विकसित प्रजातियां संपूर्ण देश में एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उपयोगी पाई गई हैं।दलहनी फसलों में चने का महत्वपूर्ण स्थान है जो प्रोटीन के अच्छे स्रोत के साथ उच्च पोषण युक्त फसल है। शाकाहारी मनुष्यों के लिए चने की फसल से प्रोटीन के साथ अन्य आवश्यक स्वास्थ्यवर्धक तत्व भी प्राप्त हो जाते हैं। रबी मौसम में चना एवं राई सरसों काफी अधिक क्षेत्रफल में उगाई जा रही है। 

चना प्रोटीन का मुख्य स्रोत होने  से भूमि की उर्वरा शक्ति बनाए रखता है एवं कम मात्रा में पानी का उपयोग करता है। राई सरसों को चना के अतिरिक्त मसूर, गन्ना, आलू व बरसीम आदि के साथ अंतः शस्य पद्धति में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी प्रमाणिकता को ज्ञात करने हेतु एक परीक्षण चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के भूमि संरक्षण एवं जल प्रबंधन विभाग के प्रक्षेत्र पर सरसों- चना के साथ अंतःशस्य पद्धति के अंतर्गत वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 में किया गया। डॉ कुमार ने बताया कि परिणामों से ज्ञात हुआ कि किन्हीं दो फसलों को यदि विभिन्न अनुपात में उगाने पर भूमि में उपलब्ध पोषक तत्व,जल संसाधन व अन्य उत्पादन के घटकों का सफलतापूर्वक सदुपयोग के साथ ही साथ उनकी उपयोग क्षमता में बढ़ोतरी की जा सकती है। उन्होंने बताया कि कानपुर में विभिन्न फसल पद्धतियों का गंगा के मैदानी क्षेत्र के अंतर्गत फसलों की बढ़वार, उपज, नमी, उपयोग, दक्षता तथा आय व्यय पर प्रभाव से संबंधित परीक्षण लगातार दो वर्षों तक किया गया। 

परीक्षण हेतु अंतः शस्य पद्धतियां जैसे (i) एकल फसल सरसों (45 x 10 सेंटीमीटर) पारंपरिक विधि (ii) एकल फसल चना( 30 x 10 सेंटीमीटर) पारंपरिक विधि (iii) सरसों + चना (1:1) योगात्मक श्रंखला (45×10 सेंटीमीटर) सरसों के साथ एक लाइन चने की बुवाई (iv) चने की मेड पर बुवाई -एक पंक्ति (v) चना + सरसों की बुवाई कुंड पर (vi) चने की बुवाई सकरे बेड पर (45 सेंटीमीटर) चना की दो पंक्तियां (vii) सरसों की बुवाई सकरी बेड पर + एक तरफ सरसों दूसरी तरफ चना (viii) विस्तृत बेड कूंड 105 सेंटीमीटर -चने की तीन पंक्ति बेड पर एवं एक पंक्ति सरसों की कुंड में। उन्होंने बताया कि उपरोक्त उपचारों से प्राप्त आंकड़ों की संघ की गणना के उपरांत परिणाम प्राप्त किए गए परीक्षण से ज्ञात हुआ कि सरसों+चना 1:1 योगात्मक श्रंखला (45 सेंटीमीटर x 10 सेंटीमीटर) सरसों के साथ एक लाइन चने की अंतः शस्य प्रणाली के अंतर्गत बुवाई करने पर अधिकतम उपज एवं सरसों में तेल प्रतिशत मात्रा अन्य उपचारों की तुलना में अधिक प्राप्त हुआ।तथा शुद्ध लाभ रुपया 17421 की प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुआ। जिसकी लागत:लाभ अनुपात 2.74 रहा है। डॉ. मनीष कुमार ने सलाह दी है कि सरसों के साथ चना की फसल अंतः शस्य पद्धति में जैव गहन पूरक प्रणाली की तकनीक अपनाकर खेती करने पर अधिक लाभ पारंपरिक विधि की अपेक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

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