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हटिया खुली बजाजा बंद, गुरू झाड़े रहो कलट्टरगंज….. एक चिकाही

अजय पत्रकार की कलम से…..

शीर्षक पढकर चौंकिए मत…सत्य है! हटिया खुली बजाजा बन्द, झाड़े रहो कलेक्टरगंज ये कहावत कानपुर के साथ जुड़ी है और लगभग पूरे देश में कानपुर से परिचित लोगों के मुंह से सुनने को मिलेगी।
अटल जी भी पूरी मस्ती से कानपुर आने पर जरूर कहते थे। आज इस लेख में मै आपको इसका इतिहास बताने जा रहा हूं।
सन 1886 से पूर्व कानपुर गल्ला मंडी दौलातगंज मैदान (भूसा टोली) में हुआ करती थी उस वक्त जिन जगह मंडिया होती थी वहां पक्के सीमेंटेड ईट को जमा कर मैदान तैयार होते थे।
बैल गाडियां ट्रांसपोर्ट का साधन हुआ करती थीं। ये अन्नपूर्णा मंडी थी इसलिए इसको दौलत गंज मैदान कहते थे। मैदान आज भी वैसा ही बना है जैसा 1866 से पूर्व था। बैलों के चारा के लिए भूसे की दुकानें थीं। इस कारण ये आसपास का इलाका भूसा टोली कहलाता था वर्तमान में बर्तन बाज़ार है जिसके अध्यक्ष सरल स्वभाव मेरे भाई प्रदीप गुप्ता हैं।
मंडी के लिए स्थान छोटा पड़ने लगा, मंडी का विस्तार हो रहा था  इस कारण नई मंडी स्थल का कार्य वर्तमान कलेक्टरगंज में 1862 से आरम्भ हुआ।
सन 1866 मे शहर के कलेक्टर डब्लू एच हालसी ने इस नई अनाज मण्डी को उद्घाटन दशहरे के दिन किया। चूंकि हालसी साहब कलेक्टर थे तो इस मंडी का नाम कलेक्टर गंज पड़ा। इस स्थान पर ईंट भट्ठों की ज़मीन थी जिसको बराबर कर नयी आबादी कायम की गई थी।
कानपुर फब्तियों का शहर है यहां हर दो चार वर्ष में एक नई फब्ती प्रचलित होती है जिसे यहां चिकाही कहते हैं। चिकाहीबाजी हम सब कनपुरियों का नैसर्गिक स्वभाव है। जो कहीं भी किसी भी मौहाल मे किसी के साथ कानपुर वाले कर सकते हैं।
पर चिकाही से झाड़े रहो … का क्या सम्बन्ध ? भाई यह कहावत भी एक चिकाही ही है कानपुर की।
अब बताते हैं कि उदय किन कारणों से हुआ ……अनाज मंडी में कानपुर नगर/देहात सहित बैसवारा व बुन्देलखण्ड के लोग बैलगाड़ियों में अनाज भरकर बेचने आते। रात में मंडी के आसपास गाड़ियाँ लगा देते और बैलों के सानी-चारा में व्यस्त हो जाते। 
दुकानदार परखी से माल देखने के लिऐ बोरे छेदा करते जिससे बखारी व बोरों से अनाज रात भर में पर्याप्त मात्रा में झर कर बाहर गिर जाता था। 
बाज़ार उठने पर व्यापारियों द्वारा जों गाडियां खरीदी गई होती, उनके गिरे माल की साफ़ सफ़ाई होती। इस झाड़न से निकले अनाज को झरिया कहते और उसको लेबर का पारिश्रमिक माना जाता था।

वहां रहने वाले कई लोग अपने घरों के बाहर से गाड़ियां हटाने को कहते या झरिया जमा करने को कहते। जिसे वो साफ़ कर फुटकर सस्ता अनाज अपने घरों से बेच देते।
इस तरह अनाज को झार कर, साफ़ कर बेच कर बहुत से सेठ बन गए। बाज़ार में दुकानें खोल ली।  
इनको देख कर तब पुराने सेठ झाड़े (झारे) रहो कलेक्टरगंज की फब्ती कसते यानी चिकाही करते आपस मे, हटिया खुली बजाजा बन्द, गुरू झाड़े रहो कलट्टरगंज…। आज भी यह चिकाही सबसे ज़्यादा प्रचलित है। 

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