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असिंचित क्षेत्रों में मोटे अनाज सांवा की वैज्ञानिक खेती : डॉ. हरीश चंद्र सिंह

कानपुर। चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर डी.आर. सिंह द्वारा जारी निर्देश के क्रम में शुक्रवार को विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. हरीश चंद्र सिंह ने बताया कि असिंचित क्षेत्रों में बोई जाने वाली मोटे अनाजों में साँवा का महत्वपूर्ण स्थान है। यह भारत की एक प्राचीन फसल है। यह सामान्यत: असिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली सूखा प्रतिरोधी फसल है। इसमें पानी की आवश्यकता अन्य फसलों से कम है। हल्की नम व ऊष्ण जलवायु इसके लिए सर्वोत्तम है। उन्होंने बताया कि सामान्यतः साँवा का उपयोग चावल की तरह किया जाता है। उत्तर भारत में सांवा  की खीर बड़े चाव से खाई जाती है। पशुओं के लिए इसका बहुत उपयोग है। इसका हरा चारा पशुओं को बहुत पसंद है। इसमें चावल की तुलना में अधिक पोषक तत्व पाये जाते हैं और इसमें पायी जाने वाली प्रोटीन की पाचन क्षमता सबसे अधिक (40 प्रतिशत तक) है। 

डॉ. सिंह ने बताया कि सांवा में चावल से दूना  प्रोटीन, 11 गुना वसा, 73 गुना  रेशा, 8 गुना लौह तत्व, 1.5 गुना कैल्शियम और दूनी मात्रा में फास्फोरस पाया जाता है। उन्होंने बताया कि सामान्यतः: यह फसल कम उपजाऊ वाली मिट्टी में बोई जाती है। इसे आंशिक रूप से जलाक्रांत मिट्टी जैसे नदी के किनारे की निचली भूमि में भी उगाया जा सकता है। परन्तु इसके लिए बलुई दोमट व दोमट मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में पोष्ण तत्व हो, सर्वाधिक उपयुक्त है। मानसून के प्रारम्भ होने से पूर्व खेत की जुताई आवश्यक है जिससे खेत में नमी की मात्रा संरक्षित हो सके। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही मिट्टी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा दो–तीन जुताईयां हल से करके खेत को भली-भांति तैयार कर लेना अधिक पैदावार के लिए उपयुक्त होता है। डॉ. हरीश चंद्र सिंह ने बताया कि सांवा की बुवाई की उत्तम समय जुलाई के अंतिम सप्ताह तक है। मानसून के प्रारम्भ होने के साथ ही इसकी बुवाई कर देनी चाहिए। इसके बुवाई छिटकावाँ विधि से या कूड़ों में 3-4 सेमी. की गहराई में की जाती है। कुछ क्षेत्रों में इसकी रोपाई करते हैं। परन्तु पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेमी. रखते है लाइन में बुवाई लाभप्रद होती है। पानी के लगाव वाले स्थान पर मानसून के प्रारंभ होते ही छिटकवाँ विधि से बुवाई कर देना चाहिए तथा बाढ़ आने के सम्भवना से पूर्व फसल काट लेना श्रेयस्कर होता है। प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किग्रा. गुणवत्तायुक्त बीज पर्याप्त होता है। T-46, IP-149, UPT-8, IPM-97, IPM-100, IPM-148 and IPM-151

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग

जैविक खाद का उपयोग हमेशा लाभकारी होता है क्योंकि मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों को प्रदान करने के साथ-साथ जल धारण क्षमता को भी बढ़ाता है। 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम्पोस्ट खाद खेत में मानसून के बाद पहली जुताई के समय मिलाना लाभकारी होता है। नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश की मात्रा 40:20:20: किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करने से उत्पादन परिणाम बेहतर प्राप्त होता है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने की स्थिति में नत्रजन की आधी मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बुवाई के 25-30 दिन बाद फसल में छिड़काव करना चाहिए।

सामान्य तथा सांवा की खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु जब वर्षा लम्बे समय तक रुक गयी हो, तो पुष्प आने की स्थिति में एक सिंचाई आवश्यक हो जाती है। जल भराव की स्थिति में पानी के निकासी की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

बुवाई के 30 से 35 दिन तक खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। निराई-गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही पौधों की जड़ो में ऑक्सीजन का संचार होता है जिससे वह दूर तक फैल कर भोज्य पदार्थ एकत्र कर पौधों की देती हैं। 

सामान्यतः दो निराई-गुड़ाई  

15-15 दिवस के अन्तराल पर पर्याप्त है। पंक्तियों में बोये गये पौधों की निराई-गुड़ाई हैण्ड हो अथवा व्हील हो से किया जा सकता है। टिकाऊ खेती / मिलवा  खेती में भी  मोटे अनाजों  का बहुत योगदान  है  और इनसे किसी  भी  तरह से हानि  होने की संभावना  नहीं  होती है।

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